शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

तड़प

प्रतीक्षा संभवतः लम्बी ही होती गयी है , वरन अंतहीन हो गयी है !
पता नहीं कब वोह दिन आएगा , जब आपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने का और वहां रहकर जीवन व्यतीत करने का अवसर मिलेगा । बंजारों का जीवन जीकर थक गया हूँ हर घडी यही प्रतीत होता है कि , जो कुछ भी किया , निरर्थक है । आत्ममंथन करता हूँ तो एक सूनापन , खोखलापन दीखता है । समस्त शिक्षा का उद्देश्य धूमिल होता दीखता है । प्रभु मेरी इस सहज कामना में मेरी सहायता करें , और क्या पता यह असंभव सा दीखता प्रयोजन भी संभव हो जाए । तब तक मैं और मेरी करनी सतत प्रयासरत है ।